नयी दिल्ली, 22 नवंबर उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को कहा कि केंद्र को सिक्किम और पश्चिम बंगाल में लिम्बु और तमांग आदिवासी समुदायों का आनुपातिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए परिसीमन आयोग के पुनर्गठन पर ‘‘सुविचारित दृष्टिकोण’’ अपनाना चाहिए।
प्रधान न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि आनुपातिक प्रतिनिधित्व देने के लिए लिम्बु और तमांग समुदायों की मांग का एक संवैधानिक आधार है जो संविधान के अनुच्छेद 330 और 332 में देखा जा सकता है।
शीर्ष अदालत ने कहा कि जिन समुदायों को 2012 से अनुसूचित जनजाति (एसटी) के रूप में नामित किया गया है, उनका कोई राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं है, जो ‘‘अन्याय’’ के सिवा कुछ नहीं है।
पीठ ने कहा, ‘‘हालांकि हम जानते हैं कि हम संसद को कानून बनाने का निर्देश नहीं दे सकते। हमारा मानना है कि केंद्र सरकार का इस पर सुविचारित दृष्टिकोण होना चाहिए कि क्या उन समुदायों को न्याय सुनिश्चित करने के लिए परिसीमन आयोग का पुनर्गठन किया जाना चाहिए, जिन्हें अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के रूप में नामित किया गया है।’’
शीर्ष अदालत ने केंद्र से इस मुद्दे पर मुख्य निर्वाचन आयुक्त के साथ चर्चा करने और बृहस्पतिवार तक जवाब देने को कहा। शीर्ष अदालत ने केंद्र की इस दलील को भी मानने से इनकार कर दिया कि 2026 की जनगणना होने तक परिसीमन आयोग का गठन नहीं किया जा सकता है।
पीठ ने कहा, ‘‘यह कब किया जाएगा? 2031 में? इन समुदायों को आरक्षण पाने के लिए अगले आठ साल तक इंतजार करना होगा। आप दो दशक पीछे हैं। आप संवैधानिक व्यवस्था से इनकार कर रहे हैं।’’
शीर्ष अदालत गैर सरकारी संगठन ‘पब्लिक इंटरेस्ट कमेटी फॉर शिड्यूलिंग स्पेसफिक एरियाज’ (पीआईसीएसएसए) की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें दलील दी गई है कि एसटी श्रेणी से संबंधित लिम्बु और तमांग समुदायों को पश्चिम बंगाल और सिक्किम में आनुपातिक प्रतिनिधित्व से वंचित कर दिया गया है।
एनजीओ की ओर से पेश वकील प्रशांत भूषण ने पूर्व में दावा किया था कि सिक्किम और पश्चिम बंगाल में एसटी आबादी में वृद्धि हुई है और वृद्धि के अनुपात में उनके लिए सीटें आरक्षित नहीं करना उनके संवैधानिक अधिकारों से इनकार करने के समान है।