देश की खबरें | उच्चतम न्यायालय ने न्यायाधीश के खिलाफ गौहाटी उच्च न्यायालय की टिप्पणियों को फैसले से हटाया

नयी दिल्ली, 13 नवंबर उच्चतम न्यायालय ने गौहाटी उच्च न्यायालय के एक मौजूदा न्यायाधीश के निचली अदालत में रहने के दौरान 2017 में दिये गए एक फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय की पीठ की प्रतिकूल टिप्पणियों को आदेश से हटा दिया है।
उच्च न्यायालय के मौजूदा न्यायाधीश ने विशेष एनआईए न्यायाधीश रहने के दौरान आतंकवाद से जुड़े एक मामले की सुनवाई के दौरान यह फैसला दिया था।
न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना और न्यायमूर्ति पी एस नरसिम्हा की पीठ ने स्पष्ट किया कि उच्च न्यायालय का शेष फैसला लागू रहेगा।
शीर्ष न्यायालय ने कहा, ‘‘हमारा विचार है कि याचिकाकर्ता के खिलाफ प्रतिकूल टिप्पणियां, जैसा कि पैराग्राफ 130, 190,191,192,193,194 और 233 में और आदेश के किसी अन्य अंश में शामिल है, उन्हें कार्यवाही से हटाया गया समझा जाए और किसी भी तरीके से याचिकाकर्ता के खिलाफ बरकरार नहीं रहेगा।’’
न्यायालय ने कहा, ‘‘…आदेश/फैसले को कार्यवाही से हटाने वाली टिप्पणियां लागू रहेंगी, और यदि किसी अन्य मामले में इसे उठाया जाएगा तो इसके मूलभूत तत्वों के आधार पर विचार किया जाएगा।’’
शीर्ष न्यायालय ने पूर्व में राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण (एनआईए) को नोटिस जारी किया था और मामले को याचिकाकर्ता की पहचान जाहिर किये बगैर सूचीबद्ध करने की अनुमति दी थी।
अपनी याचिका में, न्यायाधीश ने 11 अगस्त को आये उच्च न्यायालय के फैसले में उनके खिलाफ की गई ‘कुछ खास अपमानजनक टिप्पणियों’ को आदेश से हटाने का अनुरोध किया था।
उच्च न्यायालय ने निचली अदालत द्वारा भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और गैर कानूनी गतिविधियां निवारण अधिनियम (यूएपीए) के विभिन्न प्रावधानों के तहत कथित अपराधों के लिए दोषी करार दिये गए कई व्यक्तियों को बरी कर दिया था।
न्यायाधीश ने कहा कि 22 मई 2017 को उन्होंने ‘‘गुवाहाटी में विशेष एनआईए न्यायाधीश रहने के दौरान विशेष एनआईए मामले में फैसला दिया था…आईपीसी और यूएपीए तथा शस्त्र अधिनियम,1959 के तहत विभिन्न अपराधों के लिए आरोपी व्यक्तियों को दोषी करार दिया था।’’
न्यायाधीश ने कहा कि उन्होंने 13 दोषी लोगों को विभिन्न अवधि की सजा सुनाई थी। इसके बाद, दोषी व्यक्तियों ने उच्च न्यायालय का रुख करते हुए दोषसिद्धि आदेश को चुनौती दी थी और उच्च न्यायालय ने 11 अगस्त को अपना फैसला सुनाया था।
उन्होंने कहा, ‘‘याचिकाकर्ता ने स्वीकार किया है कि उक्त टिप्पणियां अपील पर फैसला करने के लिए जरूरी नहीं है और इसलिए इससे बचने की जरूरत है।’’
न्यायाधीश ने कहा, ‘‘टिप्पणियों ने याचिकाकर्ता की प्रतिष्ठा को उनके सहकर्मियों, वकीलों और वादियों के समक्ष काफी ठेस पहुंचाई तथा उन्हें मानसिक पीड़ा दी। इसके अलावा, न्यायिक कर्तव्यों को शांतचित्त तरीके से और विश्वास के साथ निर्वहन को प्रभावित किया। टिप्पणियां भविष्य में याचिकाकर्ता के करियर को भी प्रभावित कर सकती है।’’
उन्होंने कहा कि उच्च न्यायालय दोषियों की अपील पर फैसला करने और अधीनस्थ अदालत के फैसले की आलोचना करने के दौरान, सुस्थापित सिद्धांतों का पालन करने में नाकाम रहा, जिस बारे में शीर्ष न्यायालय के कई फैसलों में चर्चा की जा चुकी है।

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